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राधा हरि को देख न पाती / गुलाब खंडेलवाल

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राधा हरि को देख न पाती
यद्यपि आठ प्रहर कानों में मुरली की ध्वनि आती
 
यमुना-तट पर, वंशीवट पर
बेसुध-सी फिरती पनघट पर
उठ-उठकर सुर की आहट पर
वन को दौड़ी जाती
 
जहां गए थे श्याम छोड़कर
फिर-फिर जाकर उसी मोड़ पर
उँगली पर दिन जोड़-जोड़कर
आँसू विफल बहाती
 
जब सोते में भी हरि आये
शीश मुकुट पट पीट सजाये
भयवश, सपना टूट न जाए
पलकें नहीं उठाती

राधा हरि को देख न पाती
यद्यपि आठ प्रहर कानों में मुरली की ध्वनि आती