भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मुरली कैसे अधर धरूँ! / गुलाब खंडेलवाल

Kavita Kosh से
Vibhajhalani (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 05:16, 2 जून 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गुलाब खंडेलवाल |संग्रह=गीत-वृंदावन / गुलाब खंडे…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


मुरली कैसे अधर धरूँ!
सुर तो वृन्दावन में छूटे, कैसे तान भरूँ!
 
जो मुरली सबके मन बसती
जिससे थी तब सुधा बरसती
आज वही नागिन-सी  डँसती
छूते जिसे डरूँ
 
जिसको लेते ही अब कर में
पीड़ा होती है अंतर में
कैसे फिर उसकी धुन पर मैं
जग को मुग्ध करूँ
 
इसको तभी धरूँ अधरों पर
जब सँग-सँग हो राधा का स्वर!
जब यह मुरली सुना-सुना कर
उसका मान हरूँ  

मुरली कैसे अधर धरूँ!
सुर तो वृन्दावन में छूटे, कैसे तान भरूँ!