भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बाज़ार से गुज़रते हुए / मुकेश मानस

Kavita Kosh से
Mukeshmanas (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:33, 4 जून 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna}} <poem> बाज़ार से गुजरते हुए घिर रही है सारी धरती सामान के अ…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


बाज़ार से गुजरते हुए


घिर रही है सारी धरती
सामान के अंबार से
दुकानों में बदल रहे हैं घर
बाजार बन रही है दुनिया
अब कहां रहेंगे वो लोग
जो भरे हैं
इंसानियत और प्यार से
1997