भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हर घड़ी इस तरह मत सोचा करो / सर्वत एम जमाल
Kavita Kosh से
हर घड़ी इस तरह मत सोचा कर
जिंदा रहना है तो समझौता करो
कुछ नहीं, इतना ही कहना था, हमें
आदमी की शक्ल में देखा करो
जात, मजहब, इल्म, सूरत, कुछ नहीं
सिर्फ़ पैसे देख कर रिश्ता करो
क्या कहा, लेता नहीं कोई सलाम
मशवरा मनो मेरा, सजदा करो
पास रक्खोगे तो जिल्लत पाओगे
यार इस ईमान का सौदा करो
एक आरक्षण के बल पर इन्कलाब
जागते में ख्वाब मत देखा करो
लोकसत्ता, लोकमत, जनभावना
फूल संग गुलदान भी बेचा करो