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नाख़ुदा बन के लोग आते हैं / अज़ीज़ आज़ाद

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नाख़ुदा बन के लोग आते हैं
ख़ुद किनारों पे डूब जाते हैं

जिनकी हालत है रहम क़ाबिल
मुझसे हमदर्दियाँ जताते हैं

क्यूँ बनाते हैं रिश्ते जन्मों के
कच्चे धागे तो टूट जाते हैं

प्यार का नाम ले के होंठों पर
क्यूँ तमाशा इसे बनाते हैं

दो क़दम साथ जो निबाह न सके
दूर के ख़्वाब क्यूँ दिखाते हैं

मैं तो उनकी भी लाज़ रख लूँगा
उँगलियाँ मुझ पे जो उठाते हैं

जिनमें एहसासे कमतरी है ‘अज़ीज़’
वो निगाहें कहाँ मिलाते हैं