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कितने आसान सबके सफ़र हो गए / विजय वाते
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द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:04, 19 जून 2010 का अवतरण
कितने आसान
सबके सफर हो गए|
रेत पर नाम लिखकर अमर हो गए|
ये जो कुर्सी मिली, क्या करिश्मा हुआ,
अब तो दुश्मन भी लख्ते-जिगर हो गए|
साँप-सीढ़ी का ये खेल भी खूब है,
वो जो नब्बे थे, बिल्कुल सिफ़र हो गए|
एक लानत, मलामत मुसीबत बला,
तेग लकड़ी की थी, साईं ग़दर हो गए|
सबके चहरे पे एक सनसनी की ख़बर,
जैसे अख़बार वैसे शहर हो गए|
ये शिकायत जहाजों की है आजकल,
उथले तालाब भी अब बहर हो गए|