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प्रथम अंक / भाग 4 / रामधारी सिंह "दिनकर"

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सहजन्या
कौन व्यथा उर्वशी भला पाएगी भू पर जाकर?
सुख ही होगा उसे वहाँ प्रियतम को कंठ लगाकर.

रम्भा
सो सुख तो होगा , परंतु, यह मही बड़ी कुत्सित है
जहाँ प्रेम की मादकता मॅ भी यातना निहित है
नही पुष्प ही अलम, वहाँ फल भी जनना होता है
जो भी करती प्रेम,उसे माता बनना होता है.

और मातृ-पद को पवित्र धरती ,यद्यपि, कहती है,
पर, माता बनकर नारी क्या क्लेश नही सहती है?
तन हो जाता शिथिल, दान मॅ यौवन गल जाता है
ममता के रस मॅ प्राणॉ का वेग पिघल जाता है.
रुक जाती है राह स्वप्न-जग मॅ आने-जाने की,
फूलॉ मॅ उन्मुक्त घूमने की सौरभ पाने की .
मेघॉ मॅ कामना नही उन्मुक्त खेल करती है,
प्राणॉ मॅ फिर नही इन्द्रधनुषी उमंग भरती है.

रोग, शोक, संताप, जरा, सब आते ही रह्ते है,
पृथ्वी के प्राणी विषाद नित पाते ही रहते है.
अच्छी है यह भूमि जहाँ बूढ़ी होती है नारी,
कण भर मधु का लोभ और इतनी विपत्तियाँ सारी?

सह्जन्या
उफ! ऐसी है घृणित भूमि? तब तो उर्वशी हमारी ,
सचमुच ही, कर रही नरक मॅ जाने की तैयारी.
तू ने भी रम्भे! निर्घिन क्या बातॅ बतलाई है!
अब तो मुझे मही रौरव-सी पड़्ती दिखलाई है.

गर्भ-भार उर्वशी मानवी के समान ढोयेगी?
यह शोभा, यह गठन देह की, यह प्रकांति खोएगी?
जो अयोनिजा स्वयं, वही योनिज संतान जनेगी?
यह सुरम्य सौरभ की कोमल प्रतिमा जननि बनेगी?
किरण्मयी यह परी करेगी यह विरुपता धारण?
वह भी और नही कुछ, केवल एक प्रेम के कारण?

रम्भा
हाँ, अब परियाँ भी पूजेंगी प्रेम-देवता जी को,
और स्वर्ग की विभा करेगी नमस्कार धरती को.
जहाँ प्रेम राक्षसी भूख से क्षण-क्षण अकुलाता है,
प्रथम ग्रास मॅ ही यौवन की ज्योति निगल जाता है;
धर देता है भून रूप को दाहक आलिंगन से,
छवि को प्रभाहीन कर देता ताप-तप्त चुम्बन से,
पतझर का उपमान बना देता वाटिका हरी को,
और चूमता रहता फिर सुन्दरता की गठरी को.
इसी देव की बाहॉ मॅ झुलसेंगी अब परियाँ भी
यौवन को कर भस्म बनेंगी माता अप्सरियाँ भी.
पुत्रवती होंगी, शिशु को गोदी मॅ हलराएँगी
मदिर तान को छोड़ सांझ से ही लोरी गाएँगी.
पह्नेंगी कंचुकी क्षीर से क्षण-क्षण गीली-गीली,
नेह लगाएँगी मनुष्य से, देह करेंगी ढीली.

मेनका
पर, रम्भे! क्या कभी बात यह मन मॅ आती है,
माँ बनते ही त्रिया कहाँ-से-कहाँ पहुंच जाती है?
गलती है हिमशिला, सत्य है, गठन देह की खोकर,
पर, हो जाती वह असीम कितनी पयस्विनी होकर?
युवा जननि को देख शांति कैसी मन मॅ जगती है!
रूपमती भी सखी! मुझे तो वही त्रिया लगती है,
जो गोदी मॅ लिये क्षीरमुख शिशु को सुला रही हो
अथवा खड़ी प्रसन्न पुत्र का पलना झुला रही हो

[एक अप्सरा गुनगुनाती हुई उड़्ती आ रही है]
 

रम्भा
अरी, देख तो उधर, कौन यह गुन-गुन कर गाती है?
रँगी हुई बदली-सी उड़ती कौन चली आती है?
तुम्हॅ नही लगता क्या, जैसे इसे कही देखा है?
 
सह्जन्या
दुत पगली! यह तो अपनी ही सखी चित्रलेखा है.

सब
अरी चित्रलेखे! हम सब है यहाँ कुसुम के वन मॅ;
जल्दी आ, सब लोग चलॅ उड़ होकर साथ गगन मॅ.
भींग रही है वायु, रात अब बहुत अधिक गहराई.

चित्रलेखा
रुको, रुको क्षण भर सहचरियॉ! आई, मै यह आई.
खेल रही हो यही अभी तक तारॉ की छाया मॅ?
स्वर्ग भूल ही गया तुम्हे भी मिट्टी की माया मॅ?

[चित्रलेखा आ पहुंचती है]