भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

राह में ठोकर का सामाँ हाथ मे‍ ख़ंजर लगे / पवनेन्द्र पवन

Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:40, 29 जून 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


राह में ठोकर का सामाँ हाथ में ख़ंजर लगे
और मंदिर में वही पत्थर मुझे शंकर लगे

आईना होता है चेहरा दिल का कैसे मान लूँ
भाल पर टीका लगा रावण भी पैग़म्बर लगे

कुछ नहीं आकाशगंगा इक छलावे के सिवा
चाँद से देखी गई धरती भी है अम्बर लगे

उस सवाली शख़्स की क़िस्मत भी यारो ख़ूब थी
मर गया भूखा तो उसकी याद में लंगर लगे

काँच के घर में नहीं रहता ‘पवन’ यह सोचकर
जाने कब किस ओर से आकर कोई पत्थर लगे