भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दोपहर के अलसाये पल / लावण्या शाह

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:52, 29 अप्रैल 2007 का अवतरण (New page: रचनाकार: लावण्या शाह Category:कविताएँ Category:लावण्या शाह ~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~ ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रचनाकार: लावण्या शाह

~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~

तुम्हारी समंदर -सी गहरी आँखोँ में,
फेंकता पतवार मैं, उनींदी दोपहरी मेँ -
उन जलते क्षणोँ में, मेरा ऐकाकीपन
और घना होकर, जल उठता है - डूबते माँझी की तरह -
लाल दहकती निशानियाँ, तुम्हारी खोई आँखोँ में,
जैसे दीप-स्तंभ के समीप, मंडराता जल !

मेरे दूर के सजन, तुम ने अँधेरा ही रखा
तुम्हारे हावभावों में उभरा यातनों का किनारा -
अलसाई दोपहरी में, मैं, फिर उदास जाल फेंकता हूँ -
उस दरिया में, जो तुम्हारे नैया से नयनोँ में कैद है !

रात के पँछी, पहले उगे तारों को, चोंच मारते हैँ -
और वे, मेरी आत्मा की ही तरहा, और दहक उठते हैँ !
रात, अपनी परछाईं की ग़्होडी पर रसवार दौडती है,
अपनी नीली फुनगी के रेशम - सी लकीरों को छोडती हुई !