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ओ भटके प्रीतम मेघ / ओम पुरोहित ‘कागद’
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तेरे ही वियोग में
किए बैठी है सोलह श्रृंगार
और
तू इसे
बीते यौवन की प्रौढ़ा समझ
त्याग बैठा है
सोत चेरापूंजी के घर
ओ भटके प्रीतम मेघ !
घुमड़ कर आ
औढ़ा तीतर पांखी चूनर
बैठ सोनल सेज पर
फिर देख
कैसे टूटता है गुमान
सौत चेरापूंजी के रूप का ।