भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पहचन खो गई / सांवर दइया

Kavita Kosh से
Neeraj Daiya (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:37, 4 जुलाई 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: <poem>वे फूलों से लदे वे रथ पर चढ़े लेकर अपने पीछे लाखों कंठों से निकल…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वे फूलों से लदे
वे रथ पर चढ़े
लेकर अपने पीछे
लाखों कंठों से निकलता जयघोष
वे आगे बढ़े

आगे भी अगवानी में तैयार
अतीत के गौरव की चकाचौंध मैं
चुंधियायी भीड़
वही उन्माद भरा जयघोष अटूट
पीछे छूटती गई
गली कोनों में
चीखें-चीत्कारें
आग की लपटें
क्षत-विक्षत लाशें
  धुंआ...धुंआ...धुंआ...
साथियो !
शताब्दी का सबसे संकट भरा
समय है यही
जहां हत्यारों की पहचान खो गई है !