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अपराधी / हरीश भादानी

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किससे करूं शिकायत
                    मेरा हिरना मन अपराधी

ओ अलगोजे
आलाप उठे तुम तो
रागों के मानसून
बह गए दिशाओं ,
                    मेरी ही #तृष्णा पी गई
स्वरों के सात समंदर
किससे करूं शिकायत
                    मेरा हिरना मन अपराधी

ओ शिखरों के सूरज
कोलाहल के पांवों उतरे तुम
गली-गली में
आंज गए उजियारा
                    बंद किवाड़े किये रही
मेरी ही घाटी
किससे करूं शिकायत
                    मेरा हिरना मन अपराधी

पोर-पोर से
दुनिया रूप गए तुम तो
माटी के आंगन
                    फेर गई उलटी हथेलियां
मेरी पुरवा-पछवा
किससे करूं शिकायत
                    मेरा हिरना मन अपराधी

दे गए मुझे तुम
पीपल से कागज
झलमलती स्याही
मोर पांख दे गए लेखने
                    बरफ़ हो गई लिखने से पहले
मेरी ही भाशा
किससे करूं शिकायत
                    मेरा हिरना मन अपराधी