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कालीबंगा-१ / ओम पुरोहित ‘कागद’

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सदा ही
गूंगे थोड़े ही थे
यह खंडहर
कालीबंगा के
टीलों में
जो पडे़ हैं दबे हुए ।

यहां भी थे
विवाह के गीत
बजती थीं थालियां
निकलती थीं बारातें
और गाई जाती थीं लोरियां
आती थीं बारातें
बिहाई जाती थी छोरियां ।

रीत यहां भी थी
प्रीत की ।

अनुवाद-अंकिता पुरोहित "कागदांश"