जी ही जी में / जॉन एलिया
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जी ही जी में वो जल रही होगी
चन्दनी में टहल रहीं होगी
चान्द ने तान ली है चादर-ए-अब्र
अब वो कपड़े बदल रही होगी
सो गई होगी वो शफक अन्दाम
सब्ज़ किन्दीर जल रही होगी
सुर्ख और सब्ज़ वादियो की तरफ
वो मेरे साथ चल रही होगी
चढ़्ते-चढ़्ते किसी पहाड़ी पर
अब तो करवट बदल रही होगी
नील को झील नाक तक पहने
सन्दली ज़िस्म मल रही होगी
काहे-काहे ब्स अब तही हो क्या
तुम से मिल कर बहुत खुशी हो क्या
मिल रही हो बड़े तपाक के साथ
मुझ को अक्सर भुला चुकी हो क्या
याद है अब भी अपने ख्वाब तुम्हे
मुझ से मिलकर उदास भी हो क्या
बस मुझे यू ही एक खयाल आया
सोचती हो तो सोचती हो क्या
अब मेरी कोई ज़िन्दगी ही नहीं
अब भी तुम मेरी ज़िन्दगी हो क्या
क्या कहा इश्क जाबेदानी है
आखरी बार मिल रही हो क्या?
हाँ, फज़ा यहाँ की सोई-सोई सी है
तुम बहुत तेज़ रोशनी हो क्या
मेरे सब तंज़ बेअसर ही रहे
तुम बहुत दूर जा चुकी हो क्या
?
दिल में अब सोज़े-इंतज़ार नहीं
शम्मे उम्मीद बुझ गई हो क्या?