भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

स्मृति का प्राकतन जल / गोबिन्द प्रसाद

Kavita Kosh से
Mukeshmanas (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:22, 21 जुलाई 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गोबिन्द प्रसाद |संग्रह=मैं नहीं था लिखते समय / ग…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


तुम्हारी स्मृति का प्राक्त न जल
लाखों-करोड़ों वर्ष पहले की
अन्धेरी रातों में
धीरे से उतर
बहता है
प्रशान्त
नील समुद्र निधि बन
सृष्टि का कोई अनाम दिवस
सुबह के किनारों से
जा मिलेगा भटका हुआ
चाँद,लेकिन उस पार
नहीं जा सकेगी मेरी नाव
किसी तारे की तरह
जहाँ चमक रहे हो तुम
समाधिस्थ साधक-सा
मैं
नादीद
उस लहर को ढूँढ़ता
मरुस्थल हो चुका हूँ
अब
काल की लहर
तिरती नाव...
सब थिर खड़े हैं भोर के उजास में
स्मृति का आइना लिए