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चतुर्थ अंक / भाग 3 / रामधारी सिंह "दिनकर"

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चित्रलेखा
उफ री! मादक घड़ी प्रेम के प्रथम-प्रथम परिचय की!
मर कर भी सखि! मधु-मुहुर्त यह कभी नहीं मरता है.
जब चाहो, साकार देख लो उसे बन्द आंखॉ में.
पर मैं क्यॉ, इस भांति, स्वयं कंटकित हुई जाती हूँ?
प्रथम प्रेम की स्मृति भी कितनी पुलकपूर्ण होती है!
च्यवन पूज्य सारी वसुधा के, पर, असंख्य ललनाएँ
उन्हें देख्ती हैं अपार श्रद्धा, असीम गौरव से.
नारी को पर्याय बताकर तप:सिद्धि भूमा का,
सचमुच त्रिया जाति को ऋषि ने अद्भुत मान दिया है.

सुकन्या
पूछो मत, वैसे तो, ऋषि की प्रकृति तनिक कोपन है;
मन की रचना मेंनिविष्ट कुछ अधिक अंश पावक का.
किंतु, नारियॉ पर, सचमुच, उनकी अपार श्रद्धा है,
और सहज उतनी ही वत्सलता निरीह शिशुऑ पर.
कहते हैं, शिशु को मत देखो अगम्भीर भावॉ से;
अभी नहीं ये दूर केन्द्र से परम गूढ़ सत्ता के;
जानें, क्या कुछ देख स्वप्न में भी हंसते रहते हैं!
स्यात्, भेद जो खुला नहीं अब तक रहस्य-ज्ञानी पर,
अनायास ही उसे देखते हैं ये सहज नयन से,
क्यॉकि दृष्टि पर अभी ज्ञान का केंचुल नहीं चढ़ा है.
“जिसके भी भीतर पवित्रता जीवित है शिशुता की,
उस अदोष नर के हाथॉ में कोई मैल नहीं है.”
जब उर्वशी यहाँ आई थी पुत्र प्रसव करने को
ऋषि ने देखा था उसको, क्या कहूँ कि किस ममता से?
और रात के समय कहा चिंतन-गम्भीर गिरा में
शुभे! त्रिया का जन्म ग्रहण करने में बड़ा सुयश है
चन्द्राहत कर विजय प्राप्त कर लेना वीर नरॉ पर
बड़ी शक्ति है; शुचिस्मिते! शूरता इसे कहता हूँ.
”और नारियॉ में भी श्लथ, गर्भिणी, सत्वशीला को
देख मुझे सम्मानपूर्ण करुणा सी हो आती है.
कितनी विवश, किंतु कितनी लोकोत्तर वह लगती है!
“देह-कांति पीतिमा-युक्त; गति नहीं पदॉ के वश में;
चल लेती है किसी भांति पीवर उस मेघाली-सी
जो समुद्र का जल पीकर मंथर डगमगा रही हो.
आकृति ऑप-विहीन, किंतु, वह रहित नहीं भावॉ से;
फिर भी कोई रंग देर तक ठहर नहीं पाता है,
विवशा के वश में, मानो, अब ये उर्मियाँ नहीं हों.
दृग हो जाते वक्र या कि बाहर मन के बन्धन से;
देख नहीं पाती, जैसे देखना चाहती है वह;
यही बेबसी मुख पर आकुलता बन छा जाती है.”
निस्सहाय, उदरस्थ भविष्यत के अधीन वह दीना
किस प्रकार रख सके भला अपने वश में अपने को?
जो चाहता भविष्य, वक्त्र पर वही भाव आते हैं.
मानो, जो ले जन्म कभी तुतली वाणी बोलेगा,
लगा भेजने वह अजात तुतले संकेत अभी से.
सत्त्ववती नारी अंकन-पट है भविष्य के कर का.
कितनी सह यातना पालती त्रिया भविष्य जगत का?
कह सकता है कौन पूर्ण महिमा इस तपश्चरण की?”
और प्रसूता के समीप से जब महर्षि आए थे,
बोले थे, “उर्वशी अभी, देखा कैसी लगती थी,
पड़ी हुई निस्तब्ध शमित पीड़ा की शांत कुहू में?
तट पर लगी अचल नौका-सी जो अदृश्य में जाकर
दृश्य जगत के लिए सार्थ जीवन का ले आई हो,
और रिक्त होकर प्रभार से अब अशेष तन्द्रा में
याद कर रही हो धुन्धली बातें अदृश्य के तट की.
बाँध रहा जो तंतु लोक को लोकोत्तर जगती से,
उसका अंतिम छोर, न जाने, कहाँ अदृश्य छिपा है.
दृश्य छोर है, किंतु, यहाँ प्रत्यक्ष त्रिया के उर में!
नारी ही वह महासेतु, जिस पर अदृश्य से चलकर
नए मनुज, नव प्राण दृश्य जग में आते रहते हैं.
नारी ही वह कोष्ठ, देव, दानव, मनुज से छिपकर
महाशून्य, चुपचाप जहाँ आकार ग्रहण करता है.
सच पूछो तो, प्रजा-सृष्टि में क्या है भाग पुरुष का?
यह तो नारी ही है, जो सब यज्ञ पूर्ण करती है.
सत्त्व-भार सहती असंग, संतति असंग जनती है;
और वही शिशु को ले जाती मन के उच्च निलय में,
जहाँ निरापद, सुखद कक्ष है शैशव के झूले का.
शुभे! सदा शिशु के स्वरूप में ईश्वर ही आते हैं.
महापुरुश की ही जननी प्रत्येक जननि होती है;
किंतु, भविष्यत को समेट अनुकूल बना लेने का
मिलता कहाँ सुयोग विश्व की सारी माताऑ को?
तब भी, उनका श्रेय सुचरिते! अल्प नहीं, अद्भुत है.”

(उर्वशी का प्रवेश)

उर्वशी चित्रलेखा से-
अच्छा तो यह आप सखी के संग विराज रही हैं!
अब तो यहीं भेंट हो जाती है सब अप्सरियॉ से
च्यवन-कुटी है अथवा यह मघवा का मोद-भवन है?

चित्रलेखा
मोद-भवन हो भले सुकन्या का यह; पर अपना तो
राज-भवन है, जहाँ कल्पना और सत्य-संगम से
मनुजॉ का अगला शशांक-वंशी नरेश जनमा है.
हम अप्सरा, किंतु, आर्या किस मानव की बेटी हैं?

उर्वशी
बेटी नहीं हुई तो क्या? अब माँ तो हूँ मानव की?
नहीं देखती, रत्नमयी को कैसा लाल दिया है?

चित्रलेखा
कौन कहे, जो तेज दमकता है इसके आनन पर,
प्राप्त हुआ हो इसे अंश वह जननी नहीं, जनक से?