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पंचम अंक / भाग 4 / रामधारी सिंह "दिनकर"

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पुरुरवा
देख क्रिया. मंत्रियॉ! एक क्षण का भी समय नहीं है;
पुरोहित करें स्वस्ति-वाचन शुभ राज-तिलक का.
विश्वमना का फलादेश चरितार्थ हुआ जाता है.
मृषा बन्ध विक्रम-विलास का, मृषा मोह-माया का;
इन दैहिक सिद्धियॉ, कीर्तियॉ के कंचनावरण में,
भीतर ही भीतर विषण्ण मैं कितना रिक्त रहा हूँ!
अंतर्तम के रूदन, अभावॉ की अव्यक्त गिरा को
कितनी बार श्रवण करके भी मैने नहीं सुना है!
पर, अब और नहीं, अवहेला अधिक नहीं इस स्वर की,
ठहरो आवाहन अनंत के, मूक निनद प्राणॉ के!
पंख खोल कर अभी तुम्हारे साथ हुआ जाता हूँ
दिन-भर लुटा प्रकाश, विभावसु भी प्रदोष आने पर
सारी रश्मि समेट शैल के पार उतर जाते हैं
बैठ किसी एकांत, प्रांत, निर्जन कन्दरा, दरी में
अपना अंतर्गगन रात में उद्भासित करने को
तो मैं ही क्यॉ रहूँ सदा ततता मध्याह्न गगन में?
नए सूर्य को क्षितिज छोड़ ऊपर नभ में आने दो.
पहुँच गया मेरा मुहुर्त, किरणें समेट अम्बर से
चक्रवाल के पार विजन में कहीं उतर जाने का.
यह लो अपने घूर्णिमान सिर पर से इसे हटाकर
ऐल-वंश का मुकुट आयु के मस्तक पर धरता हूँ.
लो, पूरा हो गया राज्य-अभिषेक! कृपा पूषण की.
ऐल-वंश-अवतंस नए सम्राट आयु की जय हो
महाराज! मैं भार-मुक्त अब कानन को जाता हूँ.
भाग्य-दोष सध सका नहीं मुझसे कर्त्तव्य पिता का;
अब तो केवल प्रजा-धर्म् है, सो, उसको पालूँगा,
जहाँ रहूँगा, वहीं महाभृत का अभ्युदय मनाकर.
यती नि:स्व क्या दे सकता है सिवा एक आशिष के?
सभासदॉ! कालज्ञ आप, सब के सब कर्म-निपुण हैं,
क्या करना पटु को निदेश समयोचित कर्त्तव्यॉ का?
प्रजा-जनॉ से मात्र हमारा आशीर्वाद कहेंगे.
जय हो, चन्द्र-वंश अब तक जितना सुरम्य, सुखकर था,
उसी भाँति वह सुखद रहे आगे भी प्रजा-जनॉ को.

[एक ओर से पुरुरवा का निष्क्रमण: दूसरी ओर से महारानी औशीनरी का प्रवेश]

औशीनरी
चले गए?

सभी सभासद
जय हो अनुकम्पामयी राजमाता की.

औशीनरी
हाँ, मैं अभी राज महिषी थी, चाहे जहाँ कहीं भी
इस प्रकाश से दूर भाग्य ने मुझे फेंक रखा था.
किंतु, नियति की बात! सत्य ही, अभी राजमाता हूँ.
आ बेटा! लूँ जुड़ा प्राण छाती से तुझे लगाकर.

[आयु को हृदय से लगाती है]

कितना भव्य स्वरूप! नयन, नासिका, ललाट, चिबुक में
महाराज की आकृतियॉ का पूरा बिम्ब पड़ा है.
हाय, पालती कितने सुख, कितनी उमंग, आशा से,
मिला मुझे होता यदि मेरा तनय कहीं बचपन में.
पर, तब भी क्या बात? मनस्वी जिन महान पुरुषॉ को
नई कीर्ति की ध्वजा गाड़नी है उत्तुंग शिखर पर,
बहुधा उन्हें भाग्य गढ़ता है तपा-तपा पावक में,
पाषाणॉ पर सुला, सिंह-जननी का क्षीर पिला कर
सो तू पला गोद में जिनकी सीमंतिनी-शिखा वे,
और नहीं कोई जाया हैं तपोनिधान च्यवन की;
तप:सिंह की प्रिया, सत्य ही, केहरिणी सतियो में
पुत्र! अकारण नहीं भाग्य ने तुझे वहाँ भेजा था.
हाय, हमारा लाल चकित कितना निस्तब्ध खड़ा है!
और कौन है, जो विस्मित, निस्तब्ध न रह जाएगा
इस अकांड राज्याभिषेक, उस वट के विस्थापन से
जिसकी छाया हेतु दूर से वह चल कर आया हो?

कितना विषम शोक! पहले तो जनमा वन-कानन में;
जब महार्घ थी, मिली नहीं तब शीतल गोद पिता की.
और स्वयं आया समीप, तब सहसा चले गए वे
राजपाट, सर्वस्व सौंप, केवल वात्सल्य चुराकर.
नीरवता रवपूर्न, मौन तेरा, सब भाँति, मुखर है;
बेटा! तेरी मनोव्यथा यह किस पर प्रकट नहीं है?
पर, अब कौन विकल्प? सामने शेष एक ही पथ है
मस्तकस्थ इस राजमुकुट का भार वहन करने का.
उदित हुआ सौभाग्य आयु! तेरा अपार संकट में
किंतु, छोड़ कर तुझे, विपद में हमें कौन तारेगा?
मलिन रहा यदि तू, किसके मुख पर मुस्कान खिलेगी?
तू उबरा यदि नहीं, महाप्लावन से कौन बचेगा?
पिता गए वन, किंतु, अरे, माता तो यहीं खड़ी है
बेटा! अब भी तो अनाथ नरनाथ नहीं ऐलॉ का.
तुझे प्यास वात्सल्य-सुधा की, मैं भी उसी अमृत से
बिना लुटाए कोष हाय! आजीवन भरी रही हूँ.
फला न कोई शस्य, प्रकृति से जो भी अमृत मिला था,
लहर मारता रहा टहनियो में, सूनी डालॉ में.
किंतु, प्राप्त कर तुझे आज, बस, यही भान होता है,
शस्य-भार से मेरी सब डालियाँ झुकी जाती हों.

हाय पुत्र! मैं भी जीवन भर बहुत-बहुत प्यासी थी
शीतल जल का पात्र अधर से पहले पहल लगा है.
तप्त बना मत इसे वीरमणिअ! द्विधा, ग्लानि,चिंता से.
नहीं देखता, मैं विपन्नता में किस भाँति खड़ी हूँ,
गँवा शतऋतु-सम प्रतापशाली, महान भर्त्ता को,
अंतर से उच्छलित वेदना का विस्फोट दबाकर?
और हाय, तब भी, मैं केवल त्रिया, भीरु नारी हूँ;
रुदन छोड़ विधि ने सिरजा क्या और भाग्य नारी का?
पर, किशोर होने पर भी बेटा! तू वीर नृपति है.
नृपति नहीं टूटते कभी भी निजी विपत्ति-व्यथा से;
अपनी पीड़ा भूल यंत्रणा औरॉ की हरते हैं.

हँसते हैं, जब किरण हास्य की हो सबके अधरॉ पर,
रोते हैं, जब प्रजा-जनॉ के नयन सिक्त होते हैं
अपनी पीड़ा कहाँ,उसे अपना आनन्द कहाँ है,
जिस पर चढ़ा किरीट, भार दुर्वह् समाज-शासन का?
किंतु, हाय, हो गया यहाँ यह सब क्या एक निमिष में?

महामात्य
घटित हुआ सब, इस प्रकार्, मानो, अदृश्य के कर में
नाच रही हो पराधीन यह सभा दारु-पुतली-सी
सब की बुद्धि समेट, सभी को अपना पाठ सिखा कर
यह नाटक दुखांत भाग्य ने स्वयं यहाँ खेला है.
कौन जानता था, अनभ्र ही अशनि आज टूटेगी?
मिला कहाँ आभास देवि! हमको आसन्न विपद का?
कुछ तो भाग्य-अधीन और कुछ महाराज के भय से
हम स्तम्भित रह गए; गिरा खोलें-खोलें, तब तक तो
राज-मुकुट नृप से कुमार के सिर पर पहुंच चुका था.

सब कुछ हुआ, मरुत जैसे अम्बर में दौड़ रहे हों,
जैसे कोई आग शुष्क कानन को जला रही हो;
सब कुछ हुआ, देवि! जैसे हम मनुज नहीं, पत्थर हों,
जैसे स्वयं अभाग्य हमें आगे को हाँक रहा हो
चले गए सम्राट छोड़ हमको अपार विस्मय में,
कह पाए हम कहाँ देवि! जो कुछ हमको कहना था?

औशीनरी
कौन सका कह व्यथा? नहीं देखा, समग्र जीवन में
जो कुछ हुआ देख उसको मैं कितनी मौन रही हूँ
कोलाहल के बीच मूकता की अकम्प रेखा-सी?
वाणी का वर्चस्व रजत है, किंतु, मौन कंचन है.
पर, क्या मिला, अंत में जाकर, मुझको इस कंचन से?
उतरा सब इतिहास, जहाँ निर्घोष, निनद, कलकल था;
चले गए उस मूक नीड़ की छाया सभी बचाकर
घटनाऑ से दूर जहाँ मैं अचल, शांत बैठी थी.
महाराज कितने उदार, कितने मृदु, भाव-प्रवण थे!
मुझ अभागिनी को उनने कितना सम्मान दिया था!
पर, चलने के समय कृपा अपनी क्यॉ भूल गए वे?
रहा नहीं क्यॉ ध्यान, दानवाक्र्ति इस बड़े भवन में
कहीं उपेक्षित शांत एक वह भी धूमिल कोना है,
कभी भूल कर भी जातीं घटनाएं नहीं जहाँ पर,
न तो जहाँ इतिहासॉ की पदचाप सुनी जाती है;
जहाम प्रनय नीरव, अकम्प, कामना, स्निग्ध, शीतल है,
अभिलाषाएँ नहीं व्यग्र अपनी ही ज्वालाऑ से;
जहाँ नहीं चरणॉ के नीचे अरुण सेज मूँगॉ की,
न तो तरंगॉ में ऊपर नागिनियाँ लहराती हैं;
जहाँ नहीं बमती कृशानु सुशमा कपोल, अधरॉ की,
न तो छिटकती हैं रह-रह कर चिंगारियाँ त्वचा से;
स्थापित जहाँ शुभेच्छु, समर्पित हृदय विनम्र त्रिया का,

उद्वेगों से अधिक स्वाद है जहाँ शांति, संयम में;
एक पात्र में जहाँ क्शीर, मधुरस दोनॉ संचित हैं,
छिपे हुए हैं जहाम सूर्य-शशधर एक ही हृदय में;
जहाँ भामिनी नहीं मात्र प्रेयसी विमुग्ध पुरुश की,
अम्र्त-दायिनी, बल-विधायिनी माता भी होती है.
भूल गए क्यॉ दयित, हाय, उस नीरव, निभृत निलय में
बैठी है कोई अखंड व्रतमयी समाराधन में,
अश्रुमुखी माँगती एक ही भीख त्रिलोक-भरन से,
कण्-भर भी मत अकल्याण् हो प्रभो! कभी स्वामी का.
जो भी हो आपदा, मुझे दो,. मैं प्रसन्न सह लूँगी,
देव! किंतु मत चुभे तुच्छतम कंटक भी प्रियतम को

किंतु, हाय, हो गई मृषा साधना सकल जीवन की;
मैं बैठी ही रही ध्यान में जोड़े हुए करॉ को;
चले गए देवता बिना ही कहे बात इतनी भी,
हतभागी! उठ, जाग, देख, मैं मन्दिर से जाता हूँ.
याग-यज्ञ, व्रत-अनुष्ठान में, किसी धर्म-साधन में
मुझे बुलाए बिना नहीं प्रियतम प्रवृत होते थे.
तो यह अंतिम व्रत कठोर कैसे सन्यास सधेगा
किए शून्य वामांक, त्याग मुझ सन्यासिनी प्रिया को?
और त्यागना ही था तो जाते-जाते प्रियतम ने
ले लेने दी नहीं धूलि क्यॉ अंतिम बार पदॉ की?
मुझे बुलाए बिना अचानक कैसे चले गए वे?
अकस्मात ही मैं कैसे मर गई कांत के मन में?
शुभे! गाँस यह सदा हृदय-तल में सालती रहेगी,
मेरा ही सर्वस्व हाय, मुझसे यॉ बिछुड गया है,
मानो, उस पर मुझ अभागिनी का अधिकार नहीं हो.