भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
माना आज पहरे नहीं हैं / सांवर दइया
Kavita Kosh से
Neeraj Daiya (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:46, 28 जुलाई 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: <poem>माना आज पहरे नहीं हैं। किसने कहा खतरे नहीं हैं! चलने का तो बस दम …)
माना आज पहरे नहीं हैं।
किसने कहा खतरे नहीं हैं!
चलने का तो बस दम भरते,
हक़ीक़त में ठहरे वहीं हैं।
चीख तक नहीं सुनते हैं जो,
बसते लोग बहरे यहीं हैं।
ख़बर तक न हो, कर दे हलाल,
लोग इतने गहरे कहीं हैं।
यह बदलाव, बदलाव कैसा,
लोग नये, पैंतरे वही हैं।