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धूप / हरीश भादानी
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धूप
केवल धूप खा
अघिया गया
यह सन्नाटा
चिटखा है भीतर से
सुलगने लग गया है
लप-लप लहकेगा
दूर तक
जा जा हंसेगी आंच इसकी
झुलस जाएगी
छुआ तो
हो भर रहेगी राख
आ गिरी जो
सूखे पत्ते-सी
किसी की याद
मार्च’ 82