भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

क्या कहूं / हरीश भादानी

Kavita Kosh से
Neeraj Daiya (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:19, 6 अगस्त 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: <poem>क्या कहूं कैसे कहूं इस सरफिरी बरसात से कि जब बनाए आंख में ही घर ब…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

क्या कहूं
कैसे कहूं
इस सरफिरी बरसात से
कि जब बनाए
आंख में ही घर बनाए
और आंख से तो
सम्हाले भी नहीं सम्हले
यह घर
बाहर आ-आकर खिरे
कलझल बिखर
सूख जाए
सूनी निपट सूनी ही रहे है आंख

मेरी न माने
देख सुन तो ले उसे भी
वह बुलाए
मनुहारें करे बरसों
अनसुना रहने का
उसका दुख
छटपटा कर
हूंकता बिफरता है
थका पसरा
कहे ही जा रहा है
मांड मुझ पर मांड
मांड तो सही
इस बार
ओ री सरफिरी बरसात
सूख कर दरके हुए
चौड़े कलेजे पर
घर मांड अपना
            
अगस्त’ 78