भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इसे मत छेड़ पसर जाएगी / हरीश भादानी

Kavita Kosh से
Neeraj Daiya (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:06, 6 अगस्त 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: <poem>इसे मत छेड़ पसर जाएगी रेत है रेत बिफर जाएगी कुछ नहीं प्यास का स…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इसे मत छेड़ पसर जाएगी
रेत है रेत बिफर जाएगी


कुछ नहीं प्यास का समंदर है,
जिन्दगी पाँव-पाँव जाएगी


धूप उफने है इस कलेजे पर
हाथ मत डाल ये जलाएगी


इसने निगले हैं कई लस्कर
ये कई और निगल जाएगी


न छलावे दिखा तू पानी के
जमीं-आकाश तोड़ लाएगी,


उठी गाँवों से ये ख़म खाकर
एक आँधी सी शहर जाएगी


आँख की किरकिरी नहीं है ये
झाँकलो झील नजर आएगी


सुबह बीजी है लड़के मौसम से
सींच कर साँस दिन उगाएगी


काँच अब क्या हरीश मांजे है
रोशनी रेत में नहाएगी


इसे मत छेड़ पसर जाएगी
रेत है रेत बिफर जाएगी