भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रेत में नहाया है मन ! / हरीश भादानी

Kavita Kosh से
Neeraj Daiya (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:06, 6 अगस्त 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: <poem>रेत में नहाया है मन ! आग ऊपर से, आँच नीचे से वो धुँआए कभी, झलमला…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रेत में नहाया है मन !
    आग ऊपर से, आँच नीचे से
    वो धुँआए कभी, झलमलाती जगे
        वो पिघलती रहे, बुदबुदाती बहे
        इन तटों पर कभी धार के बीच में
डूब-डूब तिर आया है मन
रेत में नहाया है मन !


    घास सपनों सी, बेल अपनों सी
    साँस के सूत में सात सुर गूँथ कर
        भैरवी में कभी, साध केदारा
        गूंगी घाटी में, सूने धारों पर
एक आसन बिछाया है मन
रेत में नहाया है मन !


    आँधियाँ काँख में, आसमाँ आँख में
    धूप की पगरखी, ताँबई, अंगरखी
        होठ आखर रचे, शोर जैसे मचे
        देख हिरनी लजी साथ चलने सजी
इस दूर तक निभाया है मन
रेत में नहाया है मन !