भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
38/ हरीश भादानी
Kavita Kosh से
Neeraj Daiya (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 04:57, 7 अगस्त 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: <poem>अपनी और पराई सब पीड़ाएँ हमसे ऐसे एकाकार हो गई जैसे सागर में नदि…)
अपनी और पराई
सब पीड़ाएँ
हमसे ऐसे एकाकार हो गई
जैसे सागर में
नदियों के चेहरे अलग बताना मुश्किल !
चाही-अनचाही
कच्चे मनवाली
उथले तनवाली पीड़ाओं से
चोटिल,
और दरारित होकर भी
बैठे हैं ऐसे
जैसे उलझी-उफनाती
लहरों से तट का मौन तुड़ाना मुश्किल !
सुना हुआ है-
मौसम-मौसम
खून बदल जाया करता है
इसीलिए
बदरंग
रंग सब पीड़ाओं को,
सांसों में इस तरह घुलाया
जैसे दूध और पानी अलगाना मुश्किल !
जाने इनसे
किस मुहूर्त में
गठबन्धन हो गया हमारा
अनगिन
मन्वन्तर जी आए
नहीं जानते
और अभी कितने जीने हैं
ये सतर्वती पीड़ाएँ
ऐसे साथ चला करती हैं
जैसे सूरज से धूप छुड़ाना मुश्किल !
अपनी और पराई
सब पीड़ाएँ
हमसे ऐसे एकाकार हो गई
जैसे सागर में
नदियों के चेहरे अलग बताना मुश्किल !