भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रूठ जाएँ तो क्या तमाशा हो / अब्दुल मजीम ‘महश्‍र’

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:37, 15 अगस्त 2010 का अवतरण ()

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रूठ जाएँ तो क्या तमाशा हो
हम मनाएँ तो क्या तमाशा हो

काश वायदा यही जो हम करके
भूल जाएँ तो क्या तमाशा हो

तन पे पहने लिबास काग़ज़ सा
वह नहाएँ तो क्या तमाशा हो

चुपके चोरी की ये मुलाकातें
रंग लाएँ तो क्या तमाशा हो

अपने वादा पे वस्ल में ‘महशर’
वो न आएँ तो क्या तमाशा हो