Last modified on 23 अगस्त 2010, at 02:45

सारे दिन पढ़ते अख़बार / माहेश्वर तिवारी

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:45, 23 अगस्त 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=माहेश्वर तिवारी |संग्रह= }} {{KKCatNavgeet}} <poem> सारे दिन पढ…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

सारे दिन पढ़ते अख़बार;
बीत गया है फिर इतवार ।

गमलों में पड़ा नहीं पानी;
पढ़ी नहीं गई संत-वाणी;
दिन गुज़रा बिलकुल बेकार ।
सारे दिन पढ़ते अख़बार ।

पुँछी नहीं पत्रों की गर्द
खिड़की-दरवाज़े बेपर्द
कोशिश करते कितनी बार ।
सारे दिन पढ़ते अख़बार ।

मुन्ने का तुतलाता गीत-
अनसुना गया बिल्कुल बीत
कई बार करके स्वीकार ।
सारे दिन पढ़ते अख़बार ।
बीत गया है फिर इतवार ।