भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

युवाओं के नाम / गिरीश चंद्र तिबाडी 'गिर्दा'

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:26, 2 सितम्बर 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हाउ-पाणिक पिन
सोचि ल्यूँ छात सोच पड़नी- को भै तु? काँ बटिक ऐ??
रूडि़नैकि जसि बर्ख सुदै – अरख-गरख, कत्त्थ गै
और उसिक सोचि ल्यूँछात- त्वे ल्हिबेरै दुनी भै
सूरज में उज्याव भै त्योर, जैघणि में तेरि रोशनी भै
ओर उसिक औकात कूँछा- तीन में, न तेर में
‘दो सोरा मुरूलिक सोर’ – भ्यार मेंन भितेर में
जाँणि कभत फ्यास्स करि घौ- हावे की त जात छु
द्वि-ज्यौंल्या मुरुलिक सोर चलण तकैकि बात छु
पर जतुक छु जेलै छु, यो- सब तेरी करामात छु
वा रे! हाउ-पाणिक पिना! तेरि लै कि बात छु
सोचि ल्यूँछा त् सोच पड़नी…..

भावार्थ :

हवा-पानी का पिण्ड

जब सोचने लगते हैं तो सोचते हैं- तुम कौन हो? कहाँ से आए हो ? गर्मियों की-सी बरखा- आए और चले गए। और वैसे सोचिए तो – तुम्हारे ही दम से दुनिया है। सूर्य में प्रकाश है तुम्हारा, जुगनू में तुम्हारी रोशनी है। और वैसे औकात कहें- तो तीन में न तेरह में। दो सोरों पे चलने वाली मुरूली का यह स्वर – न बाहर, न भीतर । जाने कहाँ टूट जाए यह ‘सोर’- हवा की ही तो जात है। दो साँसें चलते रहने तक की तो सब बात है। पर जो भी है, जितना भी है सब तेरी ही करामात है। वाह रे हवा-पानी के पिण्ड (मनुष्य)! तेरी क्या बात है? जब सोचने लगते हैं तो सोचते हैं।….