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जौहर / श्यामनारायण पाण्डेय / युद्ध / पृष्ठ १

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निशि चली जा रही थी काली
प्राची में फैली थी लाली।
विहगों के कलरव करने से,
थी गूँज रही डाली डाली॥

सरसीरुह ने लोचन खोले,
धीरे धीरे तरु-दल डोले।
फेरी दे देकर फूलों पर,
गुन-गुन गुन-गुन भौंरे बोले॥

सहसा घूँघट कर दूर हँसी
सोने की हँसी उषा रानी।
मिल मिल लहरों के नर्तन से
चंचल सरिता सर का पानी॥

मारुत ने मुँह से फूँक दिया,
बुझ गए दीप नभ - तारों के।
कुसुमित कलियों से हँसने को,
मन ललचे मधुप - कुमारों के॥

रवि ने वातायन से झाँका,
धीरे से रथ अपना हाँका।
तम के परदों को फेंक सजग,
जग ने किरणों से तन ढाँका॥

दिनकर – कर से चमचम बिखरे,
भैरवतम हास कटारों के।
चमके कुन्तल – भाले – बरछे,
दमके पानी तलवारों के॥

फैली न अभी थी प्रात - ज्योति,
आँखें न खुली थीं मानव की।
तब तक अनीकिनी आ धमकी,
उस रूप लालची – दानव की॥

क्षण खनी जा रही थी अवनी
घोड़ों की टप - टप टापों से।
क्षण दबी जा रही थी अवनी
रण – मत्त मतंग – कलापों से॥

भीषण तोपों के आरव से
परदे फटते थे कानों के।
सुन – सुन मारू बाजों के रव
तनते थे वक्ष जवानों के॥

जग काँप रहा था बार – बार
अरि के निर्दय हथियारों से।
थल हाँफ रहा था बार – बार
हय – गज – गर्जन हुंकारों से।

भू भगी जा रही थी नभ पर,
भय से वैरी - तलवारों के।
नभ छिपा जा रहा था रज में,
डर से अरि - क्रूर - कटारों के॥

कोलाहल - हुंकृति बार – बार
आई वीरों के कानों में।
बापा रावल की तलवारें
बंदी रह सकीं न म्यानों में॥

घुड़सारों से घोड़े निकले,
हथसारों से हाथी निकले।
प्राणों पर खेल कृपाण लिए
गढ़ से सैनिक साथी निकले॥

बल अरि का ले काले कुंतल
विकराल ढाल ढाले निकले।
वैरी – वर छीने बरछी ने,
वैरी – भा ले भाले निकले॥

हय पाँख लगाकर उड़ा दिए
नभ पर सामंत सवारों ने।
जंगी गज बढ़ा दिए आगे
अंकुश के कठिन प्रहारों ने॥

फिर कोलाहल के बीच तुरत
खुल गया किले का सिंहद्वार।
हुं हुं कर निकल पड़े योधा,
धाए ले – ले कुंतल कटार॥