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आकृतियाँ और नहीं खोएँगे / योगेन्द्र दत्त शर्मा

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रेत की हथेली पर
गीत नहीं बोएँगे !

ढहते हैं सपनों के
ताजमहल, ढह लेंगे
कुहरे को लिपटाकर
सूरज-से दह लेंगे
पलकों पर मोती का
भार नहीं ढोएँगे !

आदमक़द शीशों में
धुंधलाई तसवीरें
दरक-दरक जाती हैं
बिम्बों की प्राचीरें
आकृतियाँ अपनी अब
और नहीं खोएँगे !

आभासित होता जो
खड़ा हुआ गंगाजल
इसके भीतर कितनी
भरी हुई है दलदल
इस गंदले पानी में
शंख नहीं धोएँगे !