भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खुश हुए मार कर ज़मीरों को / शेरजंग गर्ग

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:18, 7 सितम्बर 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शेरजंग गर्ग |संग्रह=क्या हो गया कबीरों को / शेरज…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

खुश हुए मार कर ज़मीरों को।
फिर चले लूटने फ़क़ीरों को।

आज राँझे भी क़त्ल में शामिल,
शर्म आने लगी है हीरों को।

रास्ते साफ़ हैं, बढ़ो बेख़ोफ़,
कैसे समझाए रहगीरो को!

दिल में नफरत की धूल गर्द जमी
हम सजाते रहे शरीरो को।

कृश्न के देश में सुशासन जन,
कन तलक यों हरेंगे चीरों को?

चलती चक्की को देखकर हँसते,
हाय, क्या हो गया कबीरों को।

लूट नफ़रत, तनातनी, हिंसा,
कब मिटाओगे इन लकीरों को?