भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खुद से रूठे हैं हम लोग / शेरजंग गर्ग

Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 07:46, 18 सितम्बर 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

खुद से रूठे हैं हम लोग
टूटे-फूटे हैं हम लोग

सत्य चुराता आँखे हमसे
इतने झूठे हैं हम लोग

इसे साध ले, उसे बाँध ले
सचमुच खूँटे हैं हम लोग

क्या कर लेंगी वे तलवारें
जिनकी मूँठे हैं हम लोग

मय-ख्वारों की महफ़िल में
ख़ाली घूँटे हैं हम लोग

हमें अजायबघर में रख दो
बहुत अनूठे हैं हम लोग

हस्ताक्षर तो बन न सकेंगे
सिर्फ अंगूठे हैं हम लोग