भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कोई शहर गुमशुदा है / शेरजंग गर्ग

Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:29, 18 सितम्बर 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कोई शहर गुमशुदा है कोई गाँव अनमना है
इन्हीं खास उलझनों से नया आदमी बना है

अभी रोशनी का टुकड़ा, नहीं आसमाँ से उतरा
नई कोंपलों पे छाया यहाँ कोहरा घना है

तुम्हे चन्द मुँहलगों ने बहका दिया है शायद
ज़रा रूप अपना देखो मेरा दर्द आईना है

नहीं मंज़िलों को मैंने दिया दोस्तों का दर्ज़ा
सभी कामयाबियों से मेरा युद्ध-सा ठना है

मेरे ख़ुशनुमा इरादो, मेरी देखभाल करना
किसी और से नहीं है, मेरा खुद से सामना है