भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भोर ने जब आँख खोली / ममता किरण

Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:15, 23 सितम्बर 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ममता किरण }} {{KKCatGeet}} <poem> भोर ने जब आँख खोली लालिमा थी …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भोर ने जब आँख खोली
लालिमा थी संग
एक किरण फूटी रुपहली
कर गयी श्रृंगार !

भोर के माथे है सूरज
रूप किरणों से सजा है
भोर की उस गोद में
माँ के आँचल सा मजा है

भोर का स्पर्श मन में
कर गया झंकार !

बांग मुर्गा दे रहा है
घंटियों की हें सदाएं
भोर के आँचल ने दी है
प्यार से अपनी दुआएं

भोर दस्तक दे रही है
हर किसी के द्वार !

भोर का आँगन खिला है
पक्षियों का है चहकना
बूटा बूटा खिल उठा है
संग फूलों का महकना

भोर का दामन पकड़
दिन को करें हम पार !