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एक ग़ज़ल है बनने को / गौतम राजरिशी
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एक ग़ज़ल है बनने को
वो बैठे हैं सजने को
आँखों ने सब कह डाला
और बचा क्या कहने को
शौक़ नहीं गर मंज़िल का
चल रस्ते पर थकने को
नाख़ून उसके बढ़ आये
ज़ख्म चले जब भरने को
महके सारा घर, जब माँ
बैठे माला जपने को
शाम ढले जब हँस दे तू
मचले सूरज उगने को
पूरा चाँद जो मुस्काए
सागर तड़पे उठने को
{द्विमासिक सुख़नवर, जनवरी-फरवरी,2010}