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अब भी / केदारनाथ अग्रवाल

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अब भी
गरीब है गाँव
और
गाँव का लोकतंत्र,
अभाव से ग्रस्त--
शोषित मुखाकृति का;
फरेब
और फंदे में फँसा,
अँधेरे में
आकंठ धँसा,
मरणासन्न,
धुँआँ पीता।

लोग कोसते हैं
गाँव में आए
लोकतंत्र को,
मौत के मुँह मे घुसे,
नारकीय--
नारकीय जीवन
भोगते हैं।

रचनाकाल: ०५-०२-१९७८