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फ़क़त शून्य / यादवेंद्र शर्मा 'चंद्र'
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हम हो तो गए हैं
सत्यवादी हरीशचंद्र
परंतु
सच कभी नहीं बोलते
यदि अचानक कभी सच
आ भी जाता है जुबान पर
तो हम
कड़वी दवाई की तरह उसे निगल जाते हैं
आखिर क्यों ?
मैं बताता हूं
हम पूंजी और मानवता की
वर्ण संकर संतानें हैं।
चेहरे पर से चेहरे
चेहरे पर से चेहरे
चेहरे पर से चेहरे
प्याज़ के छिलकों की तरह उतारते जाएं
अंतत: वजूद जैसा
एक दाना
पहचान भी रामनाम सत्य है
पीछे फ़क़त शून्य ।
अनुवाद : नीरज दइया