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बयार में उड़ता है / केदारनाथ अग्रवाल

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बयार में उड़ता है
दारुण दिन की
धूप का
गरम मिजाज
दुपट्टा,
सूर्य का हुक्म
मुस्तैदी से बजाता,
लपेट में
लिपटाता-
आदमियों को
झुलसाता।

बेहद खराब है
उद्दंड गरमी की उद्दंड राजनीति
जो किसी का भला नहीं चाहती।

चेतना के पंख,
झुलसे,
हताश,
फड़फड़ाते हैं,
देश की दिशाओं में उड़ नहीं पाते हैं।

रचनाकाल: २८-०३-१९७९