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पानी / केदारनाथ अग्रवाल
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पानी
पड़ा भँवर में नाचे;
नाव किनारे थर-थर काँपे;
चिड़िया पार गई;
नदिया हार गई।
पाथर पड़े
अगिन दहकाए,
संज्ञा-शून्य
समाधि लगाए;
दुपहर मार गई,
ऐंठ उतार गई।
रचनाकाल: २६-०८-१९७८