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वे गए / केदारनाथ अग्रवाल

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वे गए
जो बह गए बाढ़ में;
रह गए लोग
बह गए लोगों का मसान
आँखों में जलाए,
पानी का प्रकोप भोगते हैं;
खड़े,
पड़े,
बैठे
आसपास-इधर-उधर
विनाश की अस्मिता में
बच रही
अपनी अस्मिता खोजते हैं;
काँपते-
कराहते-
तड़पती अँगुलियों से
सुकुमार कलियों की
मानसिक माला
पोहते हैं।

रचनाकाल: १५-०९-१९७८