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आसमाँ के डराए हुए हैं / पुरुषोत्तम 'यक़ीन'

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आसमाँ के डराए हुए हैं
रोशनी के जलाए हुए हैं

दरिया, परबत, सितारे, शजर सब
किस कदर खौफ़ खाए हुए हैं

आग से है हवाओं को दहशत
हम यूँ दीपक बुझाए हुए हैं

बेबसी का है आलम अगर्चे
चेहरे सब तमतमाए हुए हैं

कब बदलता है परिंदे से मंज़र
बस निगाहें गडाए हुए हैं

आजकल तो 'यक़ीन' अपना सर हम
सरफ़िरों में खपाए हुए हैं