भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दिन अधमरा देखने / रमेश रंजक
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:30, 5 नवम्बर 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रमेश रंजक }} {{KKCatNavgeet}} <poem> दिन अधमरा देखने कितन…)
दिन अधमरा देखने
कितनी भीड़ उतर आई
मुश्किल से साँवली सड़क की
देह नजर आई ।
कल पर काम धकेल आज की
चिन्ता मुक्त हुई
खुली हवाओं ने सँवार दी
तबियत छुइ-मुई
दिन की बुझी शिराओं में
एक और उमर आई ।
फूट पड़े कहकहे,
चुटकुले बिखरे घुँघराले
पाँव, पंख हो गए
थकन की जंजीरों वाले
गंध पसीने की पथ भर
बतियाती घर आई