भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

यही सबब है जो हल मसअला नही होता / रामप्रकाश 'बेखुद' लखनवी

Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 07:38, 18 नवम्बर 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यही सबब है जो हल मसअला नहीं होता
कि ज़ह्नो-दिल मे कोई मश्विरा नहीं होता ।

हम आईने के मुकाबिल तो रोज़ होते हैं
हमारा ख़ुद से मगर सामना नहीं होता ।

हवा जिधर की चले, रुख़ उधर का कर लेना
समन्दरों में कोई रास्ता नहीं होता ।

बयान, पेशी, गवाही तो रोज़ होते है
मगर हयात तेरा फ़ैसला नहीं होता ।

वो जिसमें शाख़ें निकलती नहीं हैं शाख़ों से
उसी दरख़्त का साया घना नहीं होता ।

सब अपने-अपने लिए जी रहे हैं ए ’बेख़ुद’
यहाँ तो कोई किसी का सगा नहीं होता ।