भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मरण-दृश्य / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:29, 18 नवम्बर 2010 का अवतरण
कहा जो न, कहो !
नित्य - नूतन, प्राण, अपने
गान रच-रच दो !
विश्व सीमाहीन;
बाँधती जातीं मुझे कर कर
व्यथा से दीन !
कह रही हो--"दुःख की विधि--
यह तुम्हें ला दी नई निधि,
विहग के वे पंख बदले,--
किया जल का मीन;
मुक्त अम्बर गया, अब हो
जलधि-जीवन को !"
सकल साभिप्राय;
समझ पाया था नहीं मैं,
थी तभी यह हाय !
दिये थे जो स्नेह-चुम्बन,
आज प्याले गरल के घन;
कह रही हो हँस--"पियो, प्रिय,
पियो, प्रिय, निरुपाय !
मुक्ति हूँ मैं, मृत्यु में
आई हुई, न डरो !"