भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रात की बात / रमानाथ अवस्थी

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:30, 21 नवम्बर 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रात की बात, रात को होगी

दिन भर की आपाधापी से
मन का दर्पण धुँधलाया है ।
जिसने जितना दिया यहाँ पर
उसने उतना ही पाया है ।

सबकुछ पा लेने की धुन में
सबके सब दिखते हैं रोगी ।

सत्य एक होता है उसको
पाने वाले कम ही होते ।
एक समय आता है जब हम
बिना चाह के सब कुछ खोते

ऐसे दुख में कभी न फँसता
केवल एक अकेला योगी ।

वैसे तो दुख तरह-तरह के
पर दौलत का दुख अजीब है
जो केवल पैसे पर मरता
वही यहाँ सबसे ग़रीब है

ऐसे दुख का अर्थ जानता
दुनिया में बस केवल भोगी ।