भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तू धूल-भरा ही आया / महादेवी वर्मा

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:10, 1 जून 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=महादेवी वर्मा }} '''काव्य संग्रह [[दीपशिखा / महादेवी वर्म...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

काव्य संग्रह दीपशिखा से

तू धूल-भरा ही आया!
ओ चंचल जीवन-बाल! मृत्यु जननी ने अंक लगाया!
साधों ने पथ के कण मदिरा से सींचे,
झंझा आँधी ने फिर-फिर आ दृग मींचे,
आलोक तिमिर ने क्षण का कुहक बिछाया!
अंगार-खिलौनों का था मन अनुरागी,
पर रोमों में हिम-जड़ित अवशता जागी,
शत-शत प्यासों की चली बुभाती छाया!
गाढे विषाद ने अंग कर दिये पंकिल,
बिंध गये पगों में शूल व्यथा के दुर्मिल,
कर क्षार साँस ने उर का स्वर्ण उड़ाया!
पाथेय-हीन जब सपने
आख्यानशेष रह गये अंक ही अपने,
तब उस अंचल ने दे संकेत बुलाया!
जिस दिन लौटा तू चकित थकित-सा उन्मन,
करुणा से उसके भर-भर आये लोचन,
चितवन छाया में दृग-जल से नहलाया!
पालकों पर घर-घर अगणित शीतल चुम्बन,
अपनी साँसों से पोंछ वेदना के क्षण,
हिम स्निग्ध करों से बेसुध प्राण सुलाया!
नूतन प्रभात में अक्षय यति का वर दे,
तन सजल घटा-सा तड़ित-छटा-सा उर दे
हँस तुझे खेलने फिर जग में पहुँचाया!
तू धूल भरा जब आया,
ओ चंचल जीवन-बाल मृत्यु-जननी ने अंक लगाया!