भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अंगद जी का दूतत्व / तुलसीदास/ पृष्ठ 3
Kavita Kosh से
( छंद संख्या 13 से 14 )
(13)
तूँ रजनीचरनाथ महा, रघुनाथके, सेवकको जनु हौं हौं।
बलवान है स्वानु गलीं अपनीं, तोहिं लाज न गालु बजावत सौहौं।
बीस भुजा, दस सीस हरौं, न डरौं , प्रभु -आयसु -भंग तें जौं हौं।
खेतमें केहरि ज्यों गजराज दलौं दल, बालिको बालकु तौ हौं।13।
(14)
कोसलराजके काज हौं आजु त्रिकूटु उपारि , लै बारिधि बोरौं।
महाभुजदंड द्वै अंडकटाह चपेटकीं चोट चटाक दै फोरौं।
आयस भंगतें जौं न डरौं , सब मीजि सभासद श्रोनित घोरौं।
बालिको बालकु जौं, ‘तुलसी’ दसहू मुखके रनमें रद तोरौं।14।