अकेली स्त्री की
कलाई पर,
वक़्त की टिक्-टिक्
नहीं सुनी किसी ने
मौसम की हर करवट
कैलेण्डर के पन्नों से बाहर
पेड़ों पर उगते,
पेड़ों से झरते,
पत्तों में महसूस करती है
अकेली स्त्री,
कपास के ढेर से
बुरे दिनों की यादों के गर्द
अलगाती, वह
अच्छे दिनों की यादों को
नर्म उजले फाहों में
समेट लेना चाहती है ।