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अपना हार पिरोलो / राजेन्द्र प्रसाद सिंह
Kavita Kosh से
- खोलो जी,
सुबुक नयन खोलो!
वातायन से किरणें झाँकें,
तम-प्रकाश के आखर आँकें,
जगा ज्योति की प्यास रातभर
लौएँ राह विदा की ताकें!
फूल करें मनुहार कि पाँखें
ओस-कणों से धोलो!
-खोलो जी,
तृषित नयन खोलो!
यह उजड़ा-सा नीड़ तुम्हारा,
बस,टूटा-सा पेड़ सहारा-
सौ तूफानों से लड़कर भी
जो न कभी भीतर से हारा
डालें कहतीं सुधा-पान को
विष से होंठ भिगोलो!
-खोलो जी,
गहन नयन खोलो!
किसकी भौहों में थी बाँकी-
भावी इन्द्रधनुष की झाँकी?
वह दुख की आँधी में खोयी,
तुम अबतक उड़ते एकाकी!
बदलो,पंछी से माली बन
अपना हार पिरोया!
-खोलो जी,
विशद नयन खोलो!