भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अब भी ऐसे कई जियाले हैं / अश्वनी शर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अब भी ऐसे कई जियाले हैं
बहुत मसरूफ फिर भी ठाले हैं

वक्त तो आदतन ही बहता हैं
एक लम्हा मगर संभाले हैं।

सूप ये देखिये तो कैसा हैं
हमने अहसास कुछ उबाले हैं।

वो जो सूरज को फेंक आये हैं
उनके हाथों में अब उजाले हैं।

इन मुंडेरों पे जो फुदकते हैं
ये कबूतर ही हमने पाले हैं।

मंज़िले तय तो की कई लेकिन
हासिलों में फकत ये छाले हैं।

हमने लम्हात जी के देखे जो
वो ही सब आपके हवाले हैं।