अभिनव मीरा / दिनेश कुमार शुक्ल
तानी उसने आसमान-सी छतरी फिर भी
जीवन भर वह रही भीगती
अपने भीतर की वर्षा में
दुसह दुःख ने उसे छुपाया
कर्दम की मैली पर्तों में
मधुमक्खियाँ वहाँ भी घुस कर
चाट गई मन के पराग को
विस्मृति की मोटी कथरी भी उसने ओढ़ी
जीवन-रस में घुल कर उसको
रहा कँपाता वर्तमान जूड़ी-बुखार सा
इक दिन काली आँधी आई
उसको याद दूब की आई
खूब नहाई उस दिन वह अपनी माटी में
और दूब की तरह
पसरती गई धरा पर-
कब से यह सुख-सेज सजी थी!
इक दिन पूरे दिन हो आये
पहली पीर प्रसव की आई
जाग उठी वह आँधी बन कर
और फेंक दी ओढ़ी लोई
अनावरण का वह अपूर्व क्षण!
ठीक उसी क्षण
कई बरस के बाद बाँस का जंगल फूला
ठीक उसी क्षण
ऋतु का पहला आम कहीं टपका चुपके से
ठीक उसी क्षण
कोयल बोली वाणी जागी-जागी कविता
ठीक तभी
दक्षिणी गगन में उदय हुआ अभिनव ध्रुवतारा
ठीक तभी से
विष की बेल लगी मुरझाने
मीरा ने इस बार पटक कर फोड़ दिया था विष का प्याला