भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अरण्यकांड पद 11 से 15 तक/पृष्ठ 5
Kavita Kosh से
(15)
मेरे जान तात कछू दिन जीजै |
देखिअ आपु सुवन-सेवासुख, मोहि पितुको सुख दीजै ||
दिब्य-देह, इच्छा-जीवन जग बिधि मनाइ मँगि लीजै |
हरि-हर-सुजस सुनाइ, दरस दै, लोग कृतारथ कीजै ||
देखि बदन, सुनि बचन-अमिय, तन रामनयन-जल भीजै |
बोल्यो बिहग बिहँसि रघुबर बलि, कहौं सुभाय, पतीजै ||
मेरे मरिबे सम न चारि फल, होंहि तौ, क्यों न कहीजै
तुलसी प्रभु दियो उतरु मौन हीं, परी मानो प्रेम सहीजै ||